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दुश्मन भगवान (द्वितीय भाग)
Posted by शशांक शुक्ला
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मंगलवार, जुलाई 13, 2010
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कहानी दुश्मन भगवान
पिछले भाग में बताया था भगवान के दरबार में शिकायत लेकर पहुंचा एक युवक.....इसको नौकरी की सख्त ज़रुरत थी उसे नौकरी के लिये कॉल आया....
अब आगे
एच आर थोड़ा सा परेशान, मै तुमसे माफी मांगता हूं, तुम्हारा समय खराब किया मैने...
"क्यों सर क्या हुआ" मैने पूछा।
"देखों तुम्हारी जगह किसी और को रखना था वो नहीं आ रहा था तो तुम्हे फाइनल कर दिया गया था… लेकिन…. अब वो आ गया है। इसलिये अभी तुम्हे नहीं ऱख सकते है"
"पर सर....असल में हुआ क्या है। सच सच बतायेंगे.."
"देखो तुम तो जानते ही हो...कभी कभी ऐसा होता है, कोई ऐसा है जो तुम्हें यहां नहीं चाहता है जिसकी वजह से हम लोगों को नीचा देखना पड़ रहा है.... बस इतना ही कहेंगे की तुम्हे नहीं रख सकते है। तुमको काल किया जायेगा। जब ज़रुरत होगी"
उस वक्त कुछ जवाब नहीं सूझा क्योंकि दिमाग पूरी तरह से शांत हो चुका था, दिल में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी क्योंकि अक्सर पता नहीं क्यों ऐसे मौकों पर मन शांत हो जाया करता है, मेरी प्रकृति ही ऐसी है. जबकि अक्सर लोग सामने वाले की बखिया तक उधेड़ डालते है। मेरा दिमाग शांत रहने की ही सलाह देता है। हर बार पता नहीं क्यों ऐसा कुछ हो जाता है कि जिसका कोई हल नहीं सूझता है। हो सकता है कि ये सबके साथ होता हो लेकिन मेरा साथ में भी बहुत लोग है लेकिन उनके साथे ऐसा कम सुनने में आता है।
मुझे दिन याद है कि जब भी मै परेशान होता था तो मेरी मां ने मुझसे कहा था कि भगवान सब ठीक करेंगे.....और हर बार की तरह मै भगवान के पास जाकर कुछ मांगने की कोशिश करता था। लेकिन क्या कभी कुछ मिला......पता नहीं या शायद याद नहीं क्योंकि कभी नहीं मिला। पंडितो को हाथ दिखाये, अंगूंठियां बनवाई..... लेकिन हालत बद से बद्तर होते चले गये। यहां तक की अपने ही मेहनत के पैसे लेने के लिये नाको चने चबाने पड़ गये। लेकिन इतना घिसटने के बाद जाकर मिले पैसे कहां गये। उन खर्च में जो ज़रुरी थे। क्या हुआ उन पैसो का, ज्यादातर तो भविष्य को देखते हुए राशन में ही लग गये। जबकि उन पैसो में से सबसे पहले भगवान को प्रसाद चढ़ाने गया था। हां ये अलग बात है कि अगर उसका अस्तित्व है तो भी उसने इस काम में मेरी मदद बिलकुल नहीं की है। और ये बात में डंके की चोट पर कह सकता हूं। क्योंकि अपनी मेहनत के पैसो को लेने के लिये लड़ना पड़े तो शायद किसी को भगवान के अस्तित्व में विश्वास नहीं होगा। मेरे कमरे में मनहूसियत छाई रहती है, पूरे पूरे दिन अगर फोन न बजे तो कोई आवाज नहीं गूंजती।
नौकरी के सिलसिले में जाते वक्त जाते हर रोज मै उसको याद करता हूं। लेकिन उसे याद करने का क्या फायदा........यहां तक कि उसकी दी हुई उस नौकरी का क्या फायदा जिसको करने के बाद भी आज मैं बेकार हूं। हमारे पास कुछ भी नहीं है। क्यों करुं विश्वास..... क्यों। जिसके आगे सर झुकाता हूं उसको मेरी क्या फिक्र है...... उसे क्या फिक्र है कि मै किस मानसिक पीड़ा से गुज़र रहा हू। क्या मांग लेता हूं मै कि उसको देने में इतनी हिचक दिखाता है वो।
कई लोगों ने मुझको सांत्वना भी दी..... भगवान सब ठीक करता है। क्या ठीक किया उसने अभी तक मेरे साथ, पिछले जितने भी साल मैने जिये है वो कौन से पल है जिसमें उसने मुझे वो खुशी दी है जिसको याद करके मै आज भी खुश हो सकूं। क्या दिया है उसने। जो भी दिया.. पल भर में छीन लिया। आज मै फिर खाली हाथ हूं..... कुछ नहीं है मेरे पास। क्या करुं कुछ कर भी नहीं सकता। किससे शिकायत करुं। जिससे शिकायत किया करता था अबकी बार तो उसके खिलाफ ही शिकायत करनी है। आखिर किससे करुं शिकायत।कहानी का अगला भाग कुछ दिन बाद....पढ़ना न भूलें और टिप्पणी कर मुझे भी अवगत कराएं की मेरी कोशिशे कैसी है