2

दुश्मन भगवान (अंतिम भाग)

Posted by शशांक शुक्ला on शनिवार, जुलाई 17, 2010 in
ये इस कहानी का अंतिम भाग है...लेकिन सिर्फ भाग अंतिम और लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है...पिछले भाग में किस्मत का मारा एक व्यक्ति अपनी आपबीती भगवान से सामने बताता है....
जिससे शिकायत किया करता था अबकी बार तो उसके खिलाफ ही शिकायत करनी है। आखिर किससे करुं शिकायत। किससे कहूं कि क्यों उसने मुझे तुच्छ बना दिया है। क्योंकि उसने मेरे सोचे गये भविष्य को चूर चूर कर दिया । ये हक तुझको किसने दिया है। सब कहते है कि तू जो करता है सही के लिये करता है। मुझे आज तक अपने इन सवालों का जवाब नहीं मिला कि उसने क्यों मेरी बुद्धि को इस तरह मंद बना दिया मै पढ़ाई में अच्छा न कर सका। उसने क्यों मुझे खेल में आगे बढ़ने नही दिया जबकि मै उसमें कईयों से ठीक था। आज तक उसने मुझे ग्रैजुएशन तक में क्यों लटका रखा है आखिर मै ही क्यों.....
क्या मै इतना मंद बुद्धि हूं कि किसी भी क्लास में ठीक से अपने दम पर पास तक नहीं हो सकता हूं। अगर यही सब झेलने के लिये उसने मुझे यहां भेजा था तो मुझे भेजा ही क्यों, मुझे बनाया ही क्यों। आज भी मै अपने भविष्य को लेकर उतना ही परेशान हूं जितना तब होता था जब अपनी ओर से की गयी मेहनत के बाद भी क्लास में पास तक नहीं हो पाता था। आखिर मैने ऐसी कौन सी गलती की है जिसके लिये भगवान तुम मुझे रह रह कर इतनी टीस दे रहे हो। मेरी मानसिक प्रताड़ना के जिम्मेदार तुम हो। और इसके लिये मै तुम्हें कभा माफ नहीं कर सकता। अगर कोई मुझे ये कहे कि मुझे जो मेरी मेहनत के पैसे आपकी कृपा से मिले थे तो मै उससे साफ कह दूं कि..तुमने सिर्फ आसुंओ के अलावा मुझे कुछ नहीं दिया है। ये जो जिंदगी मुझे तथाकथित रुप से तुमने दी है उसको भी ले लो ...लेकिन मै इसके लिये तुम्हें माफ नहीं कर सकता।
दुनिया में हर कोई तेरे अस्तित्व को स्वीकारता है लेकिन क्यों कभी तुमने कभी उसको कुछ ऐसी नहीं दिया कि उसको यकीन हो जाये कि तुम हो। जो तुझे स्वीकारते है वो भी परेशान होने पर तुझे याद करते है और तुम उनकी ही परीक्षा लेते हो....और ये मूढबुद्धि तेरे मगढ़ंत अस्तित्व को मानकर खुद को सांत्वना दे लेते है। लेकिन कौन जानता है कि तुम परीक्षा लेते हो। जो दूसरों को परेशान करते हैं कभी तुमने उनकी परीक्षा ली है। नहीं तुमने नहीं ली। क्योंकि तुझे ही मानने वाले कहते है कि जो भगवान को मानते है तुम उनकी ही परीक्षा लेते हो। लेकिन जब वो तुम्हे मानते ही है, तुम्हे पूजते ही है तो उनकी परीक्षा की क्या ज़रुरत। अगर तुम्हें मानने के लिये भी इंट्रेंस टेस्ट देने की ज़रुरत है तो मै ये परीक्षा नहीं देना चाहता हूं।
इस मंदिर का पुजारी कहता है कि तुम हर जगह हो फिर भी लोग तुझे देखने और पूजने देश के कोने कोने में क्यों जाते है। यहां तक की मै खुद तुझसे शिकायत करने इस मंदिर में क्यों आया हूं। क्या कहूं किससे कहूं, किससे शिकायत करुं क्योंकि तेरी तो पलकें तक नहीं झपकती है और न ही तेरे शरीर में कोई हलचल होती है। मै हूं मूढ़बुद्धि हूं कि परेशानियों को चरम के बाद मै यहां खड़ा हूं...मुझे ये भी मालूम है कि कही नहीं है .....तेरे मंदिर में खड़े पेड़ को ही पूज लूं तो बेहतर है, क्योंकि कम से कम हवा के झोंके से उसमें हलचल तो होती है। तुझमें तो वो भी नहीं।
सुना है कि तेरी लाठी में आवाज नहीं होती है, हां सच है इसलिये तुझे मानने वालों को उस लाठी की मार सहनी पड़ती है। जिस स्वर्ग की चाहत में लोग तुझे मानते है उसको किसी ने नहीं देखा है। विश्वास उस पर होता है जिसको देखा जा सकता है और सच है कि कभी वो भी नहीं होता। क्योंकि अगर बिना देखे तेरा अस्तित्व है तो उसी तरह बिना दिखे शैतान का भी अस्तित्व है। जब तुम खुद के मानने वालो की परीक्षायें लेते हो तो मै क्यों न शैतान के पास चला जाउं, हो सकता है कि वो मुझे अपना ले। भविष्य किसने देखा है। दुख होगा कि तुझे छोड़कर मै शैतान के पास जा रहा होउंगा... लेकिन तुझे उससे शायद ही कोई फर्क पड़े। क्योंकि तुझे ऐसे मानने वाले कई है जो तुझ पर विश्वास करके परेशान होते रहते है। लेकिन चूं तक नहीं करते है। लेकिन मै करुंगा क्योंकि मै तुझे पूजने वालों से कहीं ज्यादा तुझे मानता था। लेकिन अगर ये सब तुम कर रहे हो तो क्यों?

बस अब बहुत हुआ तुमसे कुछ कहना बेकार है , सिर्फ एक पत्थर का बुत मुझे मेरे सवालों का जवाब नहीं दे सकता है। अगर तुमने दिया भी तो कोई समझ नहीं पायेगा, क्योंकि मै तेरा पूजने वाला हूं, मै इतना समझदार नहीं हूं कि तेरे इशारे समझ पाउं। मेरे भविष्य़ को सिर्फ बिगाड़ने के लिये अपने पास मत रख, मत लिख। लेकिन मुझे छोड़ना भी मत नहीं तो मै अकेला हो जाउंगा, लेकिन अपने पास रखकर कम से कम चोट मत पहुंचा..... तुझे ये भी नहीं कह सकता कि मुझे छोड़ दे, क्योंकि तुझसे अलग होने का डर है कि तू चला गया तो मेरा क्या होगा। मुझे ये भी मालूम है अब तक का मेरा कुछ भी कहना बेकार हो गया है। इसलिये मै अब जाना चाहता हूं, 
अब तेरी बारी है बोलने की।

और इतना कहकर वो आदमी चला गया। पता नहीं कहां, किस दिशा में, लेकिन वो चला गया, एक क्षण पलटकर भी तो नहीं देखा उसने। कहते है कि भगवान को पीठ नहीं दिखानी चाहिये लेकिन इतनी लड़ाई के बाद वो शायद भगवान को अपना मुंह भी नहीं दिखा पा रहा होगा। या शायद इतनी ज्यादा शिकायतें सुनने के बाद भगवान अपना मुंह छुपा रहे हो, लेकिन मुड़. न सकने की कमज़ोरी के कारण उस आदमी ने भगवान की ही मदद की थी....वो चलता चला गया पीछे न मुड़ा।

4

दुश्मन भगवान (द्वितीय भाग)

Posted by शशांक शुक्ला on मंगलवार, जुलाई 13, 2010 in
पिछले भाग में बताया था भगवान के दरबार में शिकायत लेकर पहुंचा एक युवक.....इसको नौकरी की सख्त ज़रुरत थी उसे नौकरी के लिये कॉल आया....
अब आगे

एच आर थोड़ा सा परेशान, मै तुमसे माफी मांगता हूं, तुम्हारा समय खराब किया मैने...
"क्यों सर क्या हुआ" मैने पूछा।
"देखों तुम्हारी जगह किसी और को रखना था वो नहीं आ रहा था तो तुम्हे फाइनल कर दिया गया था लेकिन…. अब वो आ गया है। इसलिये अभी तुम्हे नहीं ऱख सकते है"
"पर सर....असल में हुआ क्या है। सच सच बतायेंगे.."
"देखो तुम तो जानते ही हो...कभी कभी ऐसा होता है, कोई ऐसा है जो तुम्हें यहां नहीं चाहता है जिसकी वजह से हम लोगों को नीचा देखना पड़ रहा है.... बस इतना ही कहेंगे की तुम्हे नहीं रख सकते है। तुमको काल किया जायेगा। जब ज़रुरत होगी"

उस वक्त कुछ जवाब नहीं सूझा  क्योंकि दिमाग पूरी तरह से शांत हो चुका था, दिल में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी क्योंकि अक्सर पता नहीं क्यों ऐसे मौकों पर मन शांत हो जाया करता है, मेरी प्रकृति ही ऐसी है. जबकि अक्सर लोग सामने वाले की बखिया तक उधेड़ डालते है। मेरा दिमाग शांत रहने की ही सलाह देता है। हर बार पता नहीं क्यों ऐसा कुछ हो जाता है कि जिसका कोई हल नहीं सूझता है। हो सकता है कि ये सबके साथ होता हो लेकिन मेरा साथ में भी बहुत लोग है लेकिन उनके साथे ऐसा कम सुनने में आता है।
         उस दिन के बाद से भगवान तुझसे मेरी लड़ाई सी हो गयी है। हालांकि ये एक शीत युद्ध जैसा है जिसमें हम सीधे एक दूसरे पर हमला नहीं करते है लेकिन तैयारियां पूरी रखते है। भगवान भी अपनी तरफ से पूरी तैयारी करके रखता है, ऐसे लोगों को सामने ला खड़ा करता है जो न जानते और न ही पहचानते है फिर भी दुश्मनी पक्की निभाते हैं....मेरा बुरा करने की सोचते है। इसमें मै किसी और को दोष भी नहीं दे सकता हूं। दिन बढते गये और दुश्मनी और गहरी होती चली गयी। पहले सिर्फ उनके सामने अगरबत्तियां नहीं जलायी लेकिन अब तो चीज़े बढ गयी है। उसने मेरी जेबें खाली कर दी है। और मैने उसको मानने वालो को। दिन ब दिन मानसिक परेशानी को झेलता हुआ आगे बढ़ रहा हूं। भविष्य बिलकुल अंधकार में दिख रहा है लेकिन कुछ नज़र न आने के बावजूद रुककर कर भी क्या सकता हूं इसलिये आगे बढ़ा चला जा रहा हूं। सुबह न चाह कर भी देऱ से सो कर उठता हूं लेकिन उसका भी कोई फायदा नहीं होता.... क्योंकि रात में फिर नींद भी देर से ही आती है। दोपहर में खाना नहीं खाता कि क्योंकि कभी तो भूख नहीं लगती है....तो कभी ये सोचता हूं कि यार पैसे बहुत खर्च हो रहे है घर से कब तक मांगता रहुंगा। दिन में एक बार खाकर भी सोचता हूं कि यार राशन खत्म होता जा रहा है लेकिन खरीद कर लाने के लिये कुछ भी नहीं बच रहा है। जेबें खाली हो गयी है।

मुझे दिन याद है कि जब भी मै परेशान होता था तो मेरी मां ने मुझसे कहा था कि भगवान सब ठीक करेंगे.....और हर बार की तरह मै भगवान के पास जाकर कुछ मांगने की कोशिश करता था। लेकिन क्या कभी कुछ मिला......पता नहीं या शायद याद नहीं क्योंकि कभी नहीं मिला। पंडितो को हाथ दिखाये, अंगूंठियां बनवाई..... लेकिन हालत बद से बद्तर होते चले गये। यहां तक की अपने ही मेहनत के पैसे लेने के लिये नाको चने चबाने पड़ गये। लेकिन इतना घिसटने के बाद जाकर मिले पैसे कहां गये। उन खर्च में जो ज़रुरी थे। क्या हुआ उन पैसो का, ज्यादातर तो भविष्य को देखते हुए राशन में ही लग गये। जबकि उन पैसो में से सबसे पहले भगवान को प्रसाद चढ़ाने गया था। हां ये अलग बात है कि अगर उसका अस्तित्व है तो भी उसने इस काम में मेरी मदद बिलकुल नहीं की है। और ये बात में डंके की चोट पर कह सकता हूं। क्योंकि अपनी मेहनत के पैसो को लेने के लिये लड़ना पड़े तो शायद किसी को भगवान के अस्तित्व में विश्वास नहीं होगा। मेरे कमरे में मनहूसियत छाई रहती है, पूरे पूरे दिन अगर फोन न बजे तो कोई आवाज नहीं गूंजती।

नौकरी के सिलसिले में जाते वक्त जाते हर रोज मै उसको याद करता हूं। लेकिन उसे याद करने का क्या फायदा........यहां तक कि उसकी दी हुई उस नौकरी का क्या फायदा जिसको करने के बाद भी आज मैं बेकार हूं। हमारे पास कुछ भी नहीं है। क्यों करुं विश्वास..... क्यों। जिसके आगे सर झुकाता हूं उसको मेरी क्या फिक्र है...... उसे क्या फिक्र है कि मै किस मानसिक पीड़ा से गुज़र रहा हू। क्या मांग लेता हूं मै कि उसको देने में इतनी हिचक दिखाता है वो।
कई लोगों ने मुझको सांत्वना भी दी..... भगवान सब ठीक करता है। क्या ठीक किया उसने अभी तक मेरे साथ, पिछले जितने भी साल मैने जिये है वो कौन से पल है जिसमें उसने मुझे वो खुशी दी है जिसको याद करके मै आज भी खुश हो सकूं। क्या दिया है उसने। जो भी दिया.. पल भर में छीन लिया। आज मै फिर खाली हाथ हूं..... कुछ नहीं है मेरे पास। क्या करुं कुछ कर भी नहीं सकता। किससे शिकायत करुं। जिससे शिकायत किया करता था अबकी बार तो उसके खिलाफ ही शिकायत करनी है। आखिर किससे करुं शिकायत।


कहानी का अगला भाग कुछ दिन बाद....पढ़ना न भूलें और टिप्पणी कर मुझे भी अवगत कराएं की मेरी कोशिशे कैसी है 

0

दुश्मन भगवान (प्रथम भाग)

Posted by शशांक शुक्ला on गुरुवार, जुलाई 08, 2010 in
समय है रात के ग्यारह बजे, लेकिन हर रात की तरह ये रात कुछ ज्यादा ही खामोश। जहां मै  रात की आवाजों को सुनकर पहचान लिया करता था वहीं पता नहीं क्यों आज सब चुप है। चुप भी क्यों हो, जब किसी की किस्मत उसका साथ छोड़ देती है तो भीड़ में भी आदमी को अकेलापन सताता है। दुख है उसके काम पर लेकिन क्या कर सकता था वो । विश्वास  पूरी तरह से उठ चुका था उसका खुदा से ..जिस पर हमेशा खुद से ज्यादा विश्वास किया था आखिर ऐसी क्या गलती थी उसकी, क्या किया था  जो इसकी सज़ा  कुछ इस तरह से मिली।
ये बात है एक ऐसी जगह की जहां कहते है कि सपनों को पंख लग जाते है। जो चाहों मिल जाता है। लेकिन पता नहीं क्यों एक आदमी अपनी शिकायतों का बंडल लेकर भगवान के दरबार में पहुंचा था। लेकिन लगता नहीं कि उसकी सुनवाई होगी। क्या से क्या वो कहता चला गया और भगवान का पूरा दरबार सुनता चला गया लेकिन किसी ने चूं तक नहीं की।
हे प्रभु ये कैसे सज़ा दी है तुमने मुझे, क्या कर दिया था ऐसा मैने, क्या मै भीख नहीं देता इसकी सज़ा थी, या तुझे मानता तो हूं लेकिन तुझे पूजने में कोताही करता हूं इसकी सज़ा थी। अगर इतनी ही चाहत थी पूजे जाने की तो बोला तो होता एक बार। आज भी याद है वो दिन जब लगभग  कई  महीने परेशानियों में बीताकर, बहुत दिनों बाद किसी नौकरी के लिये बुलावा आया था।
हैलो आपको इंटरव्यू के लिये बुलाना चाहता हूं ,क्या आप कहीं पर काम कर रहे है।
नहीं फिलहाल तो नहीं पर आपके साथ काम करने का इच्छुक ज़रुर हूं।
तो फिर कल जाइये।
 ठीक है सर
अगले दिन के इंतजार में तो जैसे दिन काटे नहीं कट रहा था।  वो सिर्फ एक इंटरव्यू कॉल था । लेकिन ऐसा लगा कि जैसे वो मुझे नौकरी के लिये बुला रहे है। लेकिन इंतजार करते करते वो दिन भी आ गया जब मुझे उस आफिस जाना था। मै वहां के एचआर से मिला उन्होने तरह तरह के सवाल पूछे लेकिन अपनी ओर से मैने सभी सवालों के सही जवाब दिये थे। और कमाल की बात है कि उन्हें भी यहीं लगा था कि मैने सही जवाब दिये है। उन्होने ज्वाइनिंग के लिये मुझे फार्म भी पकड़ा दिया। अब तो लगा कि मेरी नौकरी पक्की है, बस मै खुश हो गया। लेकिन अभी तो मेरी फिल्म की कहानी में ट्विस्ट तो आया ही नहीं था, तो उसका आना भी तो ज़रुरी था। ट्विस्ट आया और ऐसा आया कि मेरी बेइज्जती तो हुई ही मेरा आत्मबल भी टूटता सा महसूस हुआ। एचआर मुझे अपने साथ आफिस के फ्लोर पर ले गये जहां पर मुझे शिफ्ट के बारे में समझाया गया। और अपने सीनियर को रिपोर्ट करने और अगले दिन से शिफ्ट में आने की बात भी समझा दी गयी, लेकिन मुझे फिर से एचआर ने अपने कमरे में बुलाया। मैने सोचा कि हो सकता है कि मुझे सिर्फ फार्मेलिटी के लिये बुलाया गया है।लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं था।
एचआर थोड़ा सा परेशान होकर बोला," मै तुमसे माफी मांगता हूं, तुम्हारा समय खराब किया मैने..."

4

फेक फाइव हंड्रेड ( नकली पांच सौ) भाग 4

Posted by शशांक शुक्ला on सोमवार, जून 07, 2010 in
साहब मै नकली नोट का स्मगलर नहीं हूं, साहब ये नोट मुझे एटीएम से मिला है, ये उसी में से निकला है।
अच्छा चलो हम उस बात पर विश्वास कर भी ले तो ये बात तो तय है कि तुमने इस नोट को चलाने की कोशिश की है जो एक जुर्म है। इसके लिये तो मुझे तुम्हे अंदर करना ही पड़ेगा।
साहब मुझे छोड़ दो ...रहम करो जो कहेंगे वो मै करुंगा,
देखो अगर बचना है तो जाकर सीतामल से बात करो....
सीतामल कौन है साहब....
वही जो तुम्हें यहां लेकर आया था।
अच्छा साहब
मनोज उस हवलदार के पास जाकर उससे कहता है.....हवलदार साहब आप ही मुझे बचा सकते है...कुछ करिये मुझे इस झंझट से बचा लीजिये.....

इतने में पुलिस इंस्पेक्टर ने आंखों से इशारा किया..... हवलदार को समझने में देर नहीं लगा.....

देखो मनोज मुझे पता है कि तुमने कुछ नहीं किया लेकिन कानून तो तुम्हे ही दोषी मानता है, क्योंकि तुमने नोट चलाने की कोशिश की है।

साहब मुझे बचा लो मै जेल जाना नहीं चाहता हूं। मुझे बचा लो।
तो देखो ऐसा है...तुम पांच हज़ार जुर्माना लाकर थानेदार साहब को दे दो, सारा मामला निपट जायेगा, देखो जल्दी करना नहीं तो देर हो गयी तो दिक्कत हो जायेगी तुम्हारे लिये।

पैसे की बात सुनकर मनोज की हक्का बक्का रह गया....जिन बचे कुचे पांच सौ रुपये कि लिये वो पिछले दो दिनों से दर दर भटक रहा था आज उससे पीछा छुड़ाने कि लिये उसे पांच हज़ार देने पड़ेगे ये तो मनोज ने कभी न सोचा था........मनोज की अब न हंस पा रहा था न रो पा रहा था.......अब उसने हार मान ली थी।

साहब तब तो आप मुझे जेल मे ही डाल दो ......क्योंकि यही पांच सौ रुपये मेरी आखिरी कमाई थी, क्योंकि अब मेरे पास इतने पैसे भी नहीं है कि मै अपना खर्चा भी उठा सकूं,...........पता नहीं अब मै कैसे अपने मां बाप को पैसे भेज सकूंगा..... आप ऐसा करिये की मुझे जेल में ही डाल दीजिये, अब तो मेरे पास एक पैसा भी नहीं है।

क्या कहता है तेरे पास एक भी रुपये नहीं है चल ऐसा कर एक हज़ार ही दे दे।
साहब मेरे पास अब एक फूटी कौड़ी भी नहीं है।
अबे किस भिखारी से पाला पड़ा है अच्छा जो है वो ही दे दे और निकल यहां से...
साहब मेरा पास ये आखिरी पांच सौ का नोट है जिसके चक्कर में मै यहां पर खड़ा हूं।
चल ला इसे और भाग यहां से निकल.....

इस मौके की तलाश तो मनोज को जाने कब से थी, बिना पीछे मुड़े वो सीधा आगे बढ़ता गया ...अपने घर की सीढियां चढता हुआ,अपने घर के बाथरुम में जाकर एक बाल्टी के पीछे छिप गया। उसका शरीर थरथर कांप रहा था, उसे ऐसा लगा मानों वो मौत के मुंह से सीधा अपने घर वापस आ रहा है। काफी देर बाद वो बाहर आकर देखने लगा कि कहीं उसका पीछा तो कोई नहीं कर रहा है। एक लम्बी सांस लेकर अपने बिस्तर पर गिर पड़ा उसको ये भी ख्याल नहीं था कि उसकी नौकरी जा चुकी है औऱ उसके पास चवन्नी भी नहीं है लेकिन एक सुकून है जिसकी वजह से उसे नींद आ गयी......

समाप्त


0

फेक फाइव हंड्रेड ( नकली पांच सौ) भाग 3

Posted by शशांक शुक्ला on बुधवार, मई 19, 2010 in
दुकानदार के सवालों से एक बार को तो मनोज घबरा गया लेकिन खुद को संभालते हुए पास की एक दवाइयों की दुकान पर जाकर खड़ा हो गया। सोचने लगा कि क्या खरीदना चाहिये, उसे पता था कि इसके चांस बहुत कम थे कि नोट चलेगा ,क्योंकि आजकल पांच सौ या कहें कि बड़े नोट लोग चुनचुन कर चेक करते है तभी रखते हैं। लेकन फिर भी मनोज को लग रहा था कि ये नोट चल गया तो उसके मजे आ जायेंगे। उस दवाइयों की दुकान पर भी वो काफी देर तक पूरी दुकान को देखता रहा, काफी देर से परेशान ग्राहक को देखकर दुकानदार में पूछ ही लिया।

कौन सी दवाई चाहियें सर
नहीं मै सिर्फ देख रहा था,
अरे बताइयें मै आपको दे देता हूं
नहीं नहीं ...

वो भाग खड़ा हुआ,उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था । ऐसा लग रहा था कि उसने कोई चोरी कर ली है। फिर एक कोने में खड़ा होकर उसने सोचा कि किसी दुकान पर जाकर खुले पैसे मांग लेता हुं ताकि पूरे पैसे मिल जायेंगे और नोट चल जायेगा। ये सोचकर वो एक डेयरी मालिक के पास पहुंचा और उससे कुछ पूछने ही वाला था एक हवलदार आ गया। मनोज के हाथ पैर डर के मारे थरथर कांपने लगे थे, उसका चेहरा पीला पड़ गया था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। लेकिन मरता क्या न करता वहां पर बिना कुछ पूछे खड़ा रहा। दुकान मालिक से बात करके पुलिस वाला आपनी मोटरसाइकिल से निकल गया।

भाईसाहब खुले पैसे मिल जायेंगे पांच सौ के...
हां क्यों नहीं रुकिये...
ये लीजिये....दीजिये पांच सौ का नोट
डेयरी मालिक ने पांच सौ का नोट लगभग रख ही लिया था. लेकिन रुक गया, पांच सौ का नोट हवा में करते हुये उसने उसे रोशनी में देखा और मनोज को आवाज़ दी,
 ओए रुक ये नकली नोट चला रहा है।
अरे नहीं भाई साहब ये नकली नहीं है ...
ये नकली है,,,,वापस कर मेरे रुपये

हार मानकर मनोज को रुपये वापिस करने पड़े। किसी तरह वो जानबूझकर नासमझ बनकर वहां से निकल लिया। किसी तरह नज़रें बचाकर अपने घर की तरफ जाते हुये उसे लगने लगा कि उसके ये नकली पांच सौ उसके किसी काम नहीं आने वाले है। लेकिन उसके पास कोई और रास्ता नहीं था, उसके पास सिर्फ वही पांच सौ का नकली नोट था जिसको उसे कई दिनों तक चलाना था। मनोज ने एक बार के लिये तो सोचा कि उस नकली नोट को फाड़ दे, लेकिन उसके पास उस नोट को चलाने के अलावा कोई चारा नहीं था।

एक रात फिर भूखे पेट सोने के बाद उसने अगली सुबह उस नोट को बैंक में वापस करने की ठानी। सुबह होते ही वो अपने बैंक की तरफ चल दिया। बैंक के गेट पर पहुचने के बाद एक सेंकेड के लिये मनोज रुक गया। दिमाग में अजीब सी उलझन महसूस करने लगा उसे लगा कि हो न हो ये सही कर रहा हूं या नहीं। पता नहीं कौन सी शक्ति उसे महसूस करवा रही थी कि वो बैक में वो नोट वापस न करें। लेकिन हर जगह से असफल हो चुके मनोज के पास और कोई चारा नहीं था। वो ये भी नहीं कर सकता था कि ये पांच सौ का नकली नोट फेंक कर कुछ औऱ पैसे निकाल ले। लेकिन थक हार कर बैंक पहुचें मनोज ने उस नकली नोट को बैंक के अंदर तो ले गया लेकिन उसके मन का डर उसे एक चोर साबित कर रहा था। अंदर जाकर उसने शिकायत की कि एटीएम से उसने पैसे निकाले थे जिसमें से उसे ये पांच सौ का नकली नोट निकला। लेकिन अब कौन उसकी बात पर विश्वास करता, मनोज की हर एक बात सच थी लेकिन अपनी गलती को कौन स्वीकारता है। बैंक ने उसे मना कर दिया कि उनके एटीएम ने नकली पांच सौ का नोट उगला है।बल्कि उनको तो अंधविश्वास था अपने कर्मचारियों पर, मनोज के लिये ये पांच सौ का नकली नोट गले की हड्डी बन गया था जो न तो उससे उगलते बन रहा था और न हीं निगलते। बैक कर्मचारी ने मनोज को सुझाव दिया कि उस नोट को फाड़ दे नहीं तो उसे नकली नोट चलाने के जुर्म में जेल जाना पड़ सकता है। लेकिन मनोज के पास उस पांच सौ के नोट के अलावा और कुछ न था। नोट चलाने के इरादे से उसने बैंक के बाहर जैसे ही कदम रखा ही था कि पुलिस वर्दी में खड़े एक कांस्टेबल ने इसे धर दबोचा, मनोज के पास से जैसे ही उसे पांच सौ का नकली नोट मिला हवलदार का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था।

क्यों बे नकली नोट चला रहा है....
नहीं साहब ये नकली नोट मेरा नहीं है, ये तो मुझे एटीएम से निकला है....
साले मुझे बेवकूफ समझता है....नकली नोट तेरी जेब से निकला है और मुझे कहता है कि मेरा नहीं है चल थाने...
साहब मुझे माफ कर दो ये मेरा नहीं है मुझे जाने दो ......ये नोट ले लो जाने दो......
तेरी तो मुझे रिश्वत देता है.....औऱ वो भी नकली नोट देता है चल तेरी तो ....
साहब मेरे पास और पैसे नहीं है यही एक अकेला नोट है...
अच्छा चल तेरी तो जब थाने में लट्ठ पड़ेगे तब होश ठिकाने आयेंगे।
नहीं साहब मेरी कोई गलती नहीं है मै निर्दोष हूं।
ये तो अब थानेदार साहब तय करेंगे की तू निर्दोष हो या नहीं।
नहीं साहब...

काफी गिड़गिड़ाने का बाद भी उस हवलदार के सर पर कानून सिखाने का भूत चढ़ा था। वो मनोज को पुलिस स्टेशन ले जाता है। पुलिस स्टेशन में थानेदार के सामने मनोज खुलकर सारी बात कह दी लेकिन पुलिस इंस्पेक्टर को उस वक्त उस पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन उसे एक बात पक्की हो गयी कि मनोज की इसमें कोई गलती नहीं है लेकिन बिना कुछ लिये वो उसे छोड़ने वाला नहीं था।


2

फेक फाइव हंड्रेड ( नकली पांच सौ) भाग 2

Posted by शशांक शुक्ला on शनिवार, अप्रैल 10, 2010 in
अपनी सोच को ही वो जवाब देते हुए उसने साफ कह दिया है कि वो आज जो करेगा उसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती है। एटीएम पहुंचने के बाद सबसे पहले उसमें से वो पर्ची निकालनी ज्यादा उचित समझी जो ये बताये कि असल में उसके पास कितने पैसे बचे है। पर्ची निकली, उसने पर्ची देखी और पहले तो मुस्कुराया लेकिन फिर किसी सोच में पड़ गया। उसके खाते में सिर्फ पांच सौ रुपये ही बचे थे, मनोज खुश तो इस बात से हुआ कि उसके खाते में पांच सौ रुपये मौजूद है लेकिन फिर सोच में पड़ गया कि इतने कम क्यों है ज्यादा होते तो बेहतर होता।

खैर उसने वो पांच सौ रुपये निकाल लिये और वापस घर की ओर चल पड़ा। घर आकर सबसे पहले वो उस दुकान पर गया जहां पर उसकी सबसे नयी पैंट पर रफू हो रहा था। वहां जाकर पर्ची देकर उसने अपनी पैंट मांगी। पैंट तो मिल गयी पर जैसे ही वो पीछे मुड़ा...

अरे भाई साहब......हां आपसे ही कह रहा हूं

हां क्या हुआ....
ये बताइये कि आपको ये नोट किसने दिया है
क्यों क्या हुआ....मैने तो ये नोट एटीएम से निकाला है
नहीं आप झूट बोल रहे है बताइये किसने दिया है ये
अरे नहीं भाई एटीएम से निकला है क्यों हुआ क्या है
ये नोट नकली है.......
क्या ?
हां ये नोट नकली है....ये देखिये इसमें पांच सौ नहीं लिखा है

गांधी जी के फोटो के ऊपर सच में पांच सौ वाली लिखावट नहीं थी जिसको रोशनी में देखा जाता है। उसने फिर अपनी जेब से पांच सौ का नोट निकाला और फिर उसे दिखाया सच में उसके नोट में पांच सौ लिखा था
देखा इसमें लिखा है  ....आपने जो नोट दिया है उसमें कुछ नहीं है
हां आप सही कह रहे हैं....लेकिन हो सकता है कि ये नोट पुराना हो इसलिये
क्या बात कर रहे है आप भाईसाहब मेरे पिता जी बैंक में है
अच्छा तो ठीक है, लाइये दे दीजिये, मै बाद में पैंट ले जाउंगा....


पैंट को वापस देने के बाद वो बुझे मन से वापस घर लौट आया। मन में कई सवाल लिये वो अपने बिस्तर पर लेट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें क्योंकि ये पांच सौ रुपये उसके आखिरी पांच सौ थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इन पांच सौ रुपयों का वो क्या करे जिनकी कीमत पांच पैसे भी नहीं है। परेशान से मनोज के दिमाग में अलग अलग ख्याल घर बना रहे थे। काफी सोच विचार के बाद उसने ये फैसला किया कि सिर्फ एक ही बचे हुए इस नोट को वो यूंही नहीं जाने देगा, ये उसकी मेहनत की कमाई है, अगर किसी आदमी ने उसे ये नोट दिया होता तो शायद वो उसको ये रुपये वापस करके पैसे ले लेता लेकिन ये रुपये तो उसे उस मशीन ने दिये थे जिसको वो दोष भी नहीं दे सकता था।  लेकिन करे तो क्या करे, रुपये थे पांच सौ, जो आदमी कई महीनों में पांच सौ रुपये ही जमा कर पाया हो वो ही जानता है उसकी कीमत, वो ये जानता है कि ये पांच सौ रुपये असल में पांच सौ वो वस्तुयें है जिनसे वो अपनी ज़रुरतें पूरी कर सकता है। काफी सोच विचार करने के बाद उसने सोचा कि क्यों न इस नकली नोट को बाज़ार में चला दिया जाये। क्यों न धोखे से इसे कहीं पर चला ही दिया जाये ताकि जो रुपये मिलेंगे कम से कम वो तो असली होंगे औऱ इससे पीछा छूटेगा। लेकिन दूसरी तरफ उसके दिमाग में कई बातें कौंध रही था। मसलन कहीं पकड़े गये तो बेइज्जती तो होगी ही साथ ही पुलिस का भी लफड़ा हो सकता है। या ये भी हो सकता है कि किसी ने पकड़ लिया कि ये नकली नोट है तो फाड़ भी सकता है। तब तो इसकी कीमत कुछ नहीं मिलेगी। सोच सोच कर आखिर में उसने फैसला किया वो इसे किसी न किसी दुकान पर चला देगा। क्योंकि वैसे भी इसकी कीमत एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। किसी तरह वो एक कचौड़ी वाले की दुकान पर गया वहां पर काफी देर से खड़े आदमी को देखकर दुकान वाले ने पूछ ही लिया

क्या हुआ भाई साहब कुछ लेना है क्या
नहीं नहीं.....कुछ नहीं बस मै तो ऐसे ही खड़ा हूं
अरे भाई साहब कुछ ले लीजिये...गर्म कचौड़िया है,
नहीं नहीं रहने दो मुझे नहीं लेनी है....मै तो बस किसी का  इंतजार कर रहा था


दुकानदार के सवालों से एक बार को तो मनोज घबरा गया लेकिन खुद को संभालते हुए पास की एक दवाइयों की दुकान पर जाकर खड़ा हो गया। सोचने लगा कि क्या खरीदना चाहिये, उसे पता था कि इसके चांस बहुत कम थे कि नोट चलेगा ,क्योंकि आजकल पांच सौ या कहें कि बड़े नोट लोग चुनचुन कर चेक करते है तभी रखते हैं। लेकन फिर भी मनोज को लग रहा था कि ये नोट चल गया तो उसके मजे आ जायेंगे। उस दवाइयों की दुकान पर भी वो काफी देर तक पूरी दुकान को देखता रहा, काफी देर से परेशान ग्राहक को देखकर दुकानदार में पूछ ही लिया। 

0

फेक फाइव हंड्रेड ( नकली पांच सौ) भाग 1

Posted by शशांक शुक्ला on बुधवार, अप्रैल 07, 2010 in
हर रात के बाद एक नई सुबह आती है और अपने साथ नये लोग, नये विचार और नयी घटनायें लेकर आती है। सुबह के छह बजे है और अलार्म के साथ मनोज अपने रोज़ाना के रुटीन की तरह ब्रश करने सबसे पहले जाता है और गुसलखाने बाद में। आंखों को मसलते हुए अपने कमरों के पर्दे हटा कर वो बाहर के नज़ारों को देखकर थो़ड़ा सा मुस्कुराता है , अपनी घड़ी की तरफ नज़र डालता है। सुबह से छ बजकर बारह मिनट हो रहे हैं, मनोज की उम्र यही कोई पच्चीस साल, एक छोटी सी कम्पनी में क्लर्क में पद पर काम करता है। मंदी के इस दौर में उसने किसी तरह ले दे कर अपनी नौकरी बचा ली है, सुबह की ठंडक और सूरज की मंद गर्मी में खुद को नहलाते हुए वो धीरे धीरे तैयार होता है। हर रोज की तरह आठ बजे वो अपने ऑफिस की तरफ निकलता है।

 तंगी में जी रहे मनोज के परिवार में यूंतो मां बाप हैं, वो गांव में रहते है, अपने गांव से शहर आकर कमाने का सपना लिये वो बहुत पहले ही घर छोड़कर शहर की तंग गलियों में अपने अरमान लिये पहुंच चुका था। लगभग तीन किलोमीटर दूर अपने ऑफिस की ओर जाते हुये वो ये भी याद रखता है कि पैसे किस तरह बचाये जाते हैं। और वो भी इसलिये ताकि रात को उन्ही पैसों से खाना खाया जा सके। दिल्ली जैसे शहर में तीन हज़ार रुपयों में वो अपने मकान का किराया तो देता ही है साथ ही गांव के छोट से मकान में खांसते अपने मां बाप को भी पैसे भिजवाना उसे याद  होता है। अपना फर्ज निभा चुके उसके बूढ़े मां बाप, उसके अपना फर्ज निभाने की बाट हर महीने ही जोहते रहते हैं। महीने की आखिरी तारीख आते आते मनोज को कई बार दो या तीन दिन तो सिर्फ पानी या एक रोटी में गुज़र करना पड़ जाता है, लेकिन वो जानता है कि अगर जीना है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा और जितनी तनख्वाह उसे मिलती है उसमें उसे भविष्य के लिये भी बचाकर  भी रखना है। ये अलग बात है कि भविष्य उनका बनता है जिनके पास पैसे खर्च करने के बाद भी बच जाते है।

मां बाप हर महीने की पहली तारीख को शादी कर लेने का बहाना करके मनोज को उसको अपना फर्ज याद दिला देते हैं। औऱ वो हर बार की तरह उन्हें कुछ पैसे भिजवा कर शादी की बात टाल देता है। उसे पता है कि इस शहर में जिस सैलरी पर वो काम कर रहा है उसमें से वो अपने मां बाप को ही किसी तरह पाल रहा है तो शादी के बाद अपनी बीवी को कैसे पाल सकेगा। रास्ते में अपने विचारों पर विचार करने का रोज़ाना काम करते हुये वो अपने ऑफिस का रास्ता काट लेता है। सारे दिन जी तोड़ मेहनत के बाद वो जब घर लौटता है तो इस हालत में ही नहीं रहता कि कुछ खाना बनाकर खा सकें। ख़ुद से थकान होने का झूठ बोलकर  इसी तरह वो काफी सारे पैसे न खाने के नाम पर बचा लेता है।

लेकिन आज का दिन कुछ खास है, कुछ तो है जो मनोज को अंदर ही अंदर खुशी दे रही है। उसे खुद भी नहीं पता क्यों। सुबह सुबह उठकर वो ऑफिस के लिये तैयार नहीं हुआ। नहा धोकर तैयार होने के बाद अपने सबसे नये कपड़े जिसमें से एक पैंट जो की फट गयी थी उसमें रफू करवाने के लिये वो दुकान में दे आया था उसे ढूंढ रहा था। याद आने पर वो कोई और पैंट पहनकर अपनी जेब में हाथ डालता है तो पाता है कि उसकी जेब में इस वक्त एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। मनोज का मन  दुखी हो जाता है, क्योंकि आज उसने सोचा है कि क्यों न एक दिन वो दफ्तर न जाकर अपनी सुस्त ज़िदगी को मस्त कर ले। सोचा कि इतने दिन हो गये है दिल्ली आये हुये क्यों न आज इसे घूम भी लिया जाये। काम करते करते समय तो बीत जाता है इस शहर में लेकिन ज़िंदगी नहीं मिल पाती। अपने छोटे से लकड़ी के रैक पर रखे पैकेट से अपने बैंक का एटीएम निकाल कर पैसों का इंतज़ाम करने की सोचता है, एक बार रुककर सोचता है कि वो क्या करने जा रहा है क्यों कर रहा है ये ...उसके दिमाग कहता है कि ये वही रुपये हैं जिनको  उसे अपने मां बाप को देना है, क्योंकि उसने कई दिनों से ये पैसे जो़ड़ जो़ड़ कर या सच कहें कि  पेट काट काट कर बचाये थे। लेकिन आज उसको कोई ताकत नहीं रोक सकती । आज उसने फैसला कर लिया था । वो इन पैसों से दिल्ली के दर्शन ज़रुर करेगा। अपने एटीएम की तरफ तेज़ी से कदम बढाता हुआ मनोज ये बिलकुल भूल जाता है कि महीनों से पेट काटकर उसने जो पैसे बचाये है उससे वो असल में करना क्या चाहता है। 


(बाकी भाग अपली पोस्ट में पढ़ियेगा ज़रुर)

7

शायद अंगूर खट्टे थे.....

Posted by शशांक शुक्ला on सोमवार, अप्रैल 05, 2010 in

पिछले कुछ दिनों से बीमार हूं तो ऑफिस से छुट्टी ले रखी है। मुझ हर्पीस नाम की बीमारी हो गयी है, डॉक्टर कहती है कि जिस तरह बच्चों में चिकनपॉक्स होता है उसी तरह बड़ों में हर्पीस होता है। उसने कुछ दवाईयां लिखी है जिससे मुझे राहत मिलती दिख रही है। डॉक्टर ने कम्प्लीट बेडरेस्ट की सलाह दी है इसलिये छुट्टी लेनी पड़ी।

दो दिनों से छुट्टी होने की वजह से घर में पूरे दिन बोर हो जाता हूं। शरीर पर हो रहे पकने वाले दानों की वजह शर्ट भी नहीं पहना पाता ठीक है। इसलिये एक कुर्ता पहनता हूं जो काफी ढीला ढाला है। ज्यादा परेशानी नहीं होती है।


मेरे घर के सामने जो पार्क है उसमें पास के सरकारी प्राइमरी स्कूल के बच्चे खेला करते है। मेरा भी मनोरंजन हो जाता है। इन बच्चों के खेल निराले होते हैं। कभी मिट्टी में कूदने लगते है तो कभी टुटे हुए पार्क के झूले से लटकने लगते हैं। उनकी स्कूल यूनिफार्म भी ज्यादा साफ सुथरी नहीं होती, नीली रंग की शर्ट है और नेवी ब्लू पैंट, बेल्ट भी है, यहां तक की टाई भी है लेकिन किसी बच्चे की टाई छित्ती छित्ती हो चुकी है तो किसी की बेल्ट में बकल नहीं है। कुछ बच्चों की शर्ट की बाजुयें इतनी गंदी हो चुकी है कि लगता है कि बाजुओं की रंग काला है। कई दिनों से धुली नहीं है शायद। स्कूल की छुट्टी हो चुकी है लेकिन ये बच्चे खेलने में मस्त है। इन्हे घर जाने की जल्दी नहीं है। हर उम्र के बच्चे इस खेल चौकड़ी में शामिल है।

पार्क में हर तरह के बच्चे है कोई ब्रांडेड जूत पहने हुए है तो किसी के पांव की चप्पलें भी टूटी हुई है। ये जो कैटगरी है ब्रांडेड जूतो वाली, उनके पास अपना खेल का सामान है और ग्रुप भी जिसमें लगभग सभी ने ब्रांडेड जूते पहने है। उनका अलग ग्रुप है। और जब भी ये ग्रुप खेलने आता है। वो प्राइमरी स्कूल के बच्चे वहां से चले जाया करते हैं। उनका जाने का समय हो गया है। दो दो के ग्रुप में वो जा रहे है। एक छोटा बच्चा उम्र यही कोई दो ढाई फुट रही होगी। नीली शर्ट पहनी है जिसमें बाजुओं की बगलों में लाल रंग की सिलाई साफ दिख रही है। पैरों में हवाई चप्पल है, गोल चेहरा, गाल उभरे हुए, रंग सांवला है या कहें कि सांवले से थोड़ा ज्यादा काला है। गालों पर खुश्की के निशान है, बाल रुखे है, बेल्ट नहीं है, टाइ उसने जेब में रखी है, खेलते वक्त रख ली होगी शायद। किताबें नहीं है उसके हाथों में, और वो वापस जा रहा है अधूरा खेल छोड़कर। कभी कभी मुड़कर ब्रांडेड जूते वाले बच्चों की तरफ देखता है..रुकता है...फिर चल देता है घर की ओर। उनकी बॉल उसे पसंद है चमकीली सी।

पार्क के पास कई ठेले वाले अपना सामान बेचने की जुगत में है...आइसक्रीम वाला, अंगूर वाला, केले वाला, और शिकंजी , जलजीरे वाला। सभी मौजूद हैं, पार्क में से कई बच्चे उन ठेले वालो के पास से सामान खरीदते है। ढाई फुट वाला लड़का भी निकलते हुए ठेले वालों के पास जाकर खड़ा हो जाता है। सिर्फ देखता है। कुछ खरीदा नहीं। वो पीछे छूट रहा था तो उसके दोस्तो ने उसे आवाज लगाई, सुंदर...

आवाज सुनकर उसने अपने दोस्तों की तरफ देखा, फिर इशारे से आने की बात कहीं....वो बस चलने ही वाला था कि उसने अंगूर वाले के ठेले से एक अंगूर उठाने की कोशिश की। दुकानदार की नज़र पड गयी। वो चीखा अच्छा चल भाग यहां से। लडका डर गया और उसकी तेज़ आवाज सुनकर सरपट भाग निकला अपने दोस्तों के पास। उनके साथ हो लिया... वो खुश था भले ही उसको वो अंगूर नहीं मिले लेकिन वो हंस रहा था। अपने दोस्तों के साथ बातें करता चल जा रहा था। मै सोच रहा था कि एक अंगूर के लिये भी शाय़द उसके पास कुछ नहीं था। या फिर शायद ये अंगूर उसके लिये खट्टे थे

Copyright © 2009 कलमबंद All rights reserved. Theme by Laptop Geek. | Bloggerized by FalconHive.