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फेक फाइव हंड्रेड ( नकली पांच सौ) भाग 1

Posted by शशांक शुक्ला on बुधवार, अप्रैल 07, 2010 in
हर रात के बाद एक नई सुबह आती है और अपने साथ नये लोग, नये विचार और नयी घटनायें लेकर आती है। सुबह के छह बजे है और अलार्म के साथ मनोज अपने रोज़ाना के रुटीन की तरह ब्रश करने सबसे पहले जाता है और गुसलखाने बाद में। आंखों को मसलते हुए अपने कमरों के पर्दे हटा कर वो बाहर के नज़ारों को देखकर थो़ड़ा सा मुस्कुराता है , अपनी घड़ी की तरफ नज़र डालता है। सुबह से छ बजकर बारह मिनट हो रहे हैं, मनोज की उम्र यही कोई पच्चीस साल, एक छोटी सी कम्पनी में क्लर्क में पद पर काम करता है। मंदी के इस दौर में उसने किसी तरह ले दे कर अपनी नौकरी बचा ली है, सुबह की ठंडक और सूरज की मंद गर्मी में खुद को नहलाते हुए वो धीरे धीरे तैयार होता है। हर रोज की तरह आठ बजे वो अपने ऑफिस की तरफ निकलता है।

 तंगी में जी रहे मनोज के परिवार में यूंतो मां बाप हैं, वो गांव में रहते है, अपने गांव से शहर आकर कमाने का सपना लिये वो बहुत पहले ही घर छोड़कर शहर की तंग गलियों में अपने अरमान लिये पहुंच चुका था। लगभग तीन किलोमीटर दूर अपने ऑफिस की ओर जाते हुये वो ये भी याद रखता है कि पैसे किस तरह बचाये जाते हैं। और वो भी इसलिये ताकि रात को उन्ही पैसों से खाना खाया जा सके। दिल्ली जैसे शहर में तीन हज़ार रुपयों में वो अपने मकान का किराया तो देता ही है साथ ही गांव के छोट से मकान में खांसते अपने मां बाप को भी पैसे भिजवाना उसे याद  होता है। अपना फर्ज निभा चुके उसके बूढ़े मां बाप, उसके अपना फर्ज निभाने की बाट हर महीने ही जोहते रहते हैं। महीने की आखिरी तारीख आते आते मनोज को कई बार दो या तीन दिन तो सिर्फ पानी या एक रोटी में गुज़र करना पड़ जाता है, लेकिन वो जानता है कि अगर जीना है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा और जितनी तनख्वाह उसे मिलती है उसमें उसे भविष्य के लिये भी बचाकर  भी रखना है। ये अलग बात है कि भविष्य उनका बनता है जिनके पास पैसे खर्च करने के बाद भी बच जाते है।

मां बाप हर महीने की पहली तारीख को शादी कर लेने का बहाना करके मनोज को उसको अपना फर्ज याद दिला देते हैं। औऱ वो हर बार की तरह उन्हें कुछ पैसे भिजवा कर शादी की बात टाल देता है। उसे पता है कि इस शहर में जिस सैलरी पर वो काम कर रहा है उसमें से वो अपने मां बाप को ही किसी तरह पाल रहा है तो शादी के बाद अपनी बीवी को कैसे पाल सकेगा। रास्ते में अपने विचारों पर विचार करने का रोज़ाना काम करते हुये वो अपने ऑफिस का रास्ता काट लेता है। सारे दिन जी तोड़ मेहनत के बाद वो जब घर लौटता है तो इस हालत में ही नहीं रहता कि कुछ खाना बनाकर खा सकें। ख़ुद से थकान होने का झूठ बोलकर  इसी तरह वो काफी सारे पैसे न खाने के नाम पर बचा लेता है।

लेकिन आज का दिन कुछ खास है, कुछ तो है जो मनोज को अंदर ही अंदर खुशी दे रही है। उसे खुद भी नहीं पता क्यों। सुबह सुबह उठकर वो ऑफिस के लिये तैयार नहीं हुआ। नहा धोकर तैयार होने के बाद अपने सबसे नये कपड़े जिसमें से एक पैंट जो की फट गयी थी उसमें रफू करवाने के लिये वो दुकान में दे आया था उसे ढूंढ रहा था। याद आने पर वो कोई और पैंट पहनकर अपनी जेब में हाथ डालता है तो पाता है कि उसकी जेब में इस वक्त एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। मनोज का मन  दुखी हो जाता है, क्योंकि आज उसने सोचा है कि क्यों न एक दिन वो दफ्तर न जाकर अपनी सुस्त ज़िदगी को मस्त कर ले। सोचा कि इतने दिन हो गये है दिल्ली आये हुये क्यों न आज इसे घूम भी लिया जाये। काम करते करते समय तो बीत जाता है इस शहर में लेकिन ज़िंदगी नहीं मिल पाती। अपने छोटे से लकड़ी के रैक पर रखे पैकेट से अपने बैंक का एटीएम निकाल कर पैसों का इंतज़ाम करने की सोचता है, एक बार रुककर सोचता है कि वो क्या करने जा रहा है क्यों कर रहा है ये ...उसके दिमाग कहता है कि ये वही रुपये हैं जिनको  उसे अपने मां बाप को देना है, क्योंकि उसने कई दिनों से ये पैसे जो़ड़ जो़ड़ कर या सच कहें कि  पेट काट काट कर बचाये थे। लेकिन आज उसको कोई ताकत नहीं रोक सकती । आज उसने फैसला कर लिया था । वो इन पैसों से दिल्ली के दर्शन ज़रुर करेगा। अपने एटीएम की तरफ तेज़ी से कदम बढाता हुआ मनोज ये बिलकुल भूल जाता है कि महीनों से पेट काटकर उसने जो पैसे बचाये है उससे वो असल में करना क्या चाहता है। 


(बाकी भाग अपली पोस्ट में पढ़ियेगा ज़रुर)

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